शापित अनिका: भाग १५

जमीन पर चित्त पड़ा अघोरा बड़े ताज्जुब में था कि आखिर क्या कारण है कि वो अनिका को छू नहीं पा रहा? उसे हैरानी हो रही थी कि जिस अनिका के शरीर में घुसकर वो उसे इस महल तक लाया है, अब वो उसे स्पर्श भी नहीं कर पा रहा। उसने भेदती नजरों से अनिका की आंखों में झांका पर उसकी आंखों में ज्यादा देर तक देख नहीं पाया। उसे लगा मानों अनिका की आंखों में हजारों सूरज एक साथ घुस गये हों, जिनके प्रकाश से उसकी आंखे चौंधियां गईं।


"ये कैसा आश्चर्य है? नव- सिद्धि प्राप्त अघोरा न तो इसे स्पर्श कर पा रहा है और न ही अपनी सिद्धी से हम इसके मन की बात पढ़ पा रहें हैं।" अघोरा बड़बड़ाया।


"क्यों? क्या अब भी तुम्हें अपने सर्वशक्तिमान होने का घमंड है?" अनिका उसे भूशायी देखकर खिलखिलाकर हंस पड़ी और गले से रूद्राक्ष की माला दिखाते हुये बोली- "जब तक भगवान शिव का ये रूद्राक्ष मेरे साथ है, शादी तो दूर तुम मुझे छू भी नहीं पाओगे।"


"मूर्ख कन्या.... हम अघोरा हैं, अघोरपंथ के सर्वशक्तिमान साधक। हमने अपनी तंत्र- शक्ति से पिशाचिनी, ड़ाकिनी, यक्ष, गंधर्व और यहां तक कि भैरव और भैरवी को भी सिद्ध किया है। भगवान शिव मेरे आराध्य हैं और तू उन के रूद्राक्ष से मेरा अहित करने की कामना रखती है?" अघोरा ने अट्टाहास किया- "इन रूद्राक्ष- मालाओं को धारण कर तो मैं प्रतिदिन अपनी शक्तियों का विस्तार करता हूं।"


"तुझे क्या मैं बेवकूफ लगती हूं?" अनिका हंसकर बोली- "तुझ जैसी पापी और कमीनी आत्मा और महादेव का रूद्राक्ष पहनती है? अभी पता चल जायेगा।" अनिका अविश्वास से बोली और आगे बढ़कर माला अघोरा को छुआ दी लेकिन आश्चर्य अघोरा अविचलित अट्टाहास करता उसे क्रूर नजरों से देख रहा था।


"ये कोई परीकथा नहीं है मूढ़ कन्या...." अघोरा अपनी तेज हंसी के साथ बोला- "जिसमें रूद्राक्ष का स्पर्श होते ही दुष्ट दानव भस्म हो जायेगा। शिव का प्रकोप कभी भी उनके भक्तों पर प्रस्फुटित नहीं होता। शिव तो भोलेनाथ हैं, उन्हें मात्र श्रद्धा से प्रयोजन है भले ही वो आस्था हम जैसे दुष्टों की हो। और फिर शिव तो भूतनाथ भी हैं।"


अघोरा पर रूद्राक्ष का कोई असर न देखकर अनिका सकते में आ गई। उसे यकीन ही नहीं हो पा रहा था अघोरा पर रूद्राक्ष की माला कोई असर ही नहीं कर रही है लेकिन शिव की लीला तो शिव ही जाने!


अनिका तो इस बात पर हैरानी हुई कि अगर रूद्राक्ष अघोरा पर असर नहीं करते तो क्या कारण था कि अघोरा उसे छू नहीं पाया। मन ही मन में उसने भगवान को धन्यवाद दिया और व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ अघोरा से बोली- "रावण भी शिव का परमभक्त था अघोरा और प्रकांड विद्वान भी, लेकिन जब उसने भी दुष्टता का दामन पकड़ा तो उसे उसकी शिव- भक्ति भी नहीं बचा पाई।"


"क्या मेरे एक स्पर्श न कर पाने से तुम खुद को सीता समझ रही हो?" अघोरा मुस्कुराया- "परन्तु इतना ज्ञात रहे, शीघ्र ही इस समस्या का निदान भी हो जायेगा। बुला लो अपने ईश्वर को, परन्तु स्मरण रहे कि आज से ठीक उन्नीसवें दिन तुम्हें तुम्हारे केशों से घसीटते हुये बलि- पीठ तक लेकर जाऊंगा और धूम्रपाद का शरीर पाकर अनंतकाल तक तुम्हारे यौवन- रस का पान करूंगा।"


"होप यू विल गेट बैटर लक नेक्सट टाइम...." अनिका हंसकर बोली और अपने बांये हाथ से अघोरा के पेट पर एक मुक्का जड़ दिया। मुक्का पड़ते ही अघोरा को एक तेज झटका लगा और वो लड़खड़ाते हुये पांच- छ: कदम पीछे हट गया।


"रूद्राक्ष असर नहीं करते तो कोई बात नहीं लेकिन थोड़ा बहुत जादू मेरे हाथों में भी है।" अनिका हंसकर बोली- "अब जल्दी से मेरे नहाने के लिये पांच बाल्टी पानी और खाने के लिये कुछ मीठे का इंतजाम करो। तुम तो मुर्दे हो लेकिन मैं जिंदा हूं और जिंदा आदमियों को भूख लगती है।" अघोरा के खुद को न छू पाने के कारण अनिका बहुत उत्साहित थी और इसे भगवान की कृपा जान आत्म- विश्वाश के साथ वहां से निकल गई। पीछे अघोरा लाल आंखों से हाथ मलते हुये उसे जाते देखता रहा।


* * *


लौह- द्वार के बगल से ही एक पगड़ंड़ी पहाड़ पर बढ़ती चली जा रही थी। आशुतोष बाबा के पीछे- पीछे उसी राह पर बढ़ा। जैसे- जैसे वो आगे बढ़ते वैसे- वैसे आशुतोष का आश्चर्य भी बढ़ता जा रहा था। उस जंगल में एक अजीब सी सुगंध फैली हुई थी। यही नहीं आस- पास के पेड़- पौधे भी अनजानी प्रजाति से थे। आशुतोष का नवोदय स्कूल और हॉस्टल शहर से हटकर थोड़े जंगली परिवेश में ही था, लेकिन वो इनमें से तुलसी के अलावा एक भी पेड़- पौधे को पहचान नहीं पा रहा था।


"बाबा थोड़ा आराम कर लेते हैं यार!" आशुतोष अचरज में था कि अस्सी- नब्बे साल की उम्र का यह आदमी बिना थके कितनी फुर्ती से पहाड़ चढ़ रहा है।


"मुक्ति, मृत्यु और समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करते इसलिये विश्राम का तो प्रश्न ही नहीं उठता।" बाबा ने मुड़कर आशुतोष को देखते हुये कहा।


"तो फिर मुक्ति आपको मुबारक...." कहते हुये आशुतोष पास के एक पेड़ पर पीठ टिकाकर बैठ गया और मुस्कुराकर बोला- "हद है यार! कितना दुष्ट भगवान होगा जो अपने भक्तों पर इतना अत्याचार कर रहा है।"


"कुछ प्राप्त करने हेतु श्रम तो करना ही पड़ता है।" बाबा नाराज स्वर में बोले- "और मुक्ति के इच्छुक भी तुम हो भगवान नहीं।"


"मेरी कोई इच्छा नहीं है।" आशुतोष बोला- "वो तो आपने कहा कि चलो मुक्ति दिलवाता हूं तो मैं आपके साथ हो लिया। हॉस्टल में रहते हुये फ्री की चीजों पर हाथ साफ करने की आदत हो गई है।"


"तुम मानवों की प्रकृति भी विचित्र है।" बाबा हंसे- "मात्र अपने लाभ के लिये ईश्वर की आराधना करते हो।"


"तो आप क्यों करते हैं? हर इंसान अपने फायदे के लिये ही तो पूजा- पाठ करता है। किसी को पैसा चाहिये, किसी को बेटा चाहिये, किसी को कोई काम करवाना है और किसी को मरने के बाद स्वर्ग चाहिये। आप साधु लोग भी तो स्वर्ग, सिद्धि या फिर मोक्ष के लालच में रहते हो। ईवन देवता लोग भी तो मुसीबत पड़ने पर ही भगवान के पास दौड़ते हैं। वर्ना वही अप्सराओं नाच- गाना और दारू- पार्टी करते रहते हैं। हम सब न एक ही थैली के चट्टे- बट्टे हैं, फिर वो चाहे आम इंसान हो, साधु- संत हो या देवता लोग ही क्यों न हो।" आशुतोष ने प्रतिवाद किया।


"तो तुम्हें लगता है कि संसार से निष्काम भक्ति का लोप हो चुका है?" बाबा ने आश्चर्य प्रकट किया।


"नहीं.... लेकिन मुझे छोड़कर एकाध ही बचे हैं...." आशुतोष ने ठहाका लगाया- "एक्चुअली न! भगवान ने खोल रहा है भंडारा.... अब सब खाने को पहुंचते हैं लेकिन कोई दाल- चावल मांगता है कोई छोले- पूरी और कोई हलवा। हम कुछ नहीं मांगते बस हाजिरी लगाने जाते हैं तो भगवान हमें हर आइटम चखने को दे देता है।"


"ईश्वर और जीव का बड़ा ही हास्यास्पद परन्तु सत्य चित्रण किया।" बाबा हंसकर बोले।


"ये मसाइले- तसव्वुफ, ये तेरा बयान गालिब....

हम तुझे वली समझते, जो न बादाखार होता...." आशुतोष ने मिर्जा गालिब की दो लाइनें बुदबुदाई।


"चलो.... काफी विश्राम कर लिया है, अब निकलना चाहिये।" बाबा हंसकर बोले- "देवस्थान यहां से कुछ ही दूर है। परन्तु स्मरण है न कि बिना बलि चढ़ाये तुम न तो इस चरण से लौट पाओगे और न ही आगे बढ़ पाओगे।"


"अरे देख लेंगें.... लेकिन वैसे आपको ये बलि वाला सिस्टम हॉर्रिबल नहीं लगता?" आशुतोष बाबा के कदम से कदम मिलाकर चलता हुआ बोला- "किसी बेजुबान जानवर को ऐसे.... आई मीन हमारी तरह उनको भी तो उसी भगवान ने बनाया है तो उनकी बलि लेकर भगवान खुश कैसे होंगें?"


"लेकिन जिस भगवान ने शाकाहारी हिरण बनाया उसी ने मांसाहारी सिंह भी तो बनाया है और तंत्र- शास्त्र का ज्ञान बहुत जटिल है, जिससे तुम पूर्णत: अनभिज्ञ हो।"


"मे बी.... लेकिन फिर भी ये बलि वाला सिस्टम आज तक मेरी समझ में नहीं आया। ईवन मैंनें तो सुना है राम भगवान ने अपने अश्वमेध यज्ञ में भी घोड़े की बलि नहीं दी थी और आप तंत्र की बात कर रहे हो, कई जगहों पर तो शांत देवी को भी बलि देते हैं।" आशुतोष मुस्कुराकर बोला।


"ये तो अपनी- अपनी प्रथायें हैं। आमतौर पर माता के उग्र विग्रह पर होने वाली बलि को देखकर कुछ मूर्ख शांत- विग्रह पर भी बलि देने लगे हैं।"


"लेकिन उग्र विग्रह पर भी बलि देना मुझे ठीक नहीं लगता। वैसे ये बलि देने के पीछे कारण क्या होता है?" आशुतोष ने जानना चाहा।


"माता के कई रूप हैं, जिनमें उन्होनें उग्र रूप धारण कर दैत्यों और दानवों का संहार किया था। एक राक्षस था रक्तबीज.... जिसकी खून की बूंदे धरती पर गिरते ही वहां एक और रक्तबीज उत्पन्न हो जाता। माता महाकाली ने उससे युद्ध किया और उसका रक्त जमीन पर न गिरने पाये इसलिये वो रक्त को जमीन पर गिरने से पहले ही पी लेतीं। ऐसे ही छिन्नमस्ता रूप में अपनी नरभक्षी भक्तों जया- विजया की भूख मिटाने के लिये अपना शीश विच्छेद किया और अपने ही रक्त से जया- विजया और खुद की भूख मिटाई। ऐसे ही कई उग्र रूप हैं और इन रूपों के कारण ये प्रचलित हुआ कि माता को रक्तपान प्रिय है और उन्हें बलि दी जाने लगी।" बाबा ने संक्षेप में समझाया।


"लेकिन माता ने तो सिर्फ दुष्टों का खून पिया है या फिर अपना.... तो फिर जानवरों की बलि क्यूं चढ़ाते हैं? साधक को भी तो दुष्टों की या फिर अपनी बलि देनी चाहिये...." आशुतोष कुछ सोचकर बोला- "है न!"


"मुझे ज्ञात नहीं...." बाबा चिढ़कर बोले- "न तो मैंनें तंत्र- शास्त्र लिखा है और न ही बलि- प्रथा की शुरूआत की। लो हम देवस्थान तक पहुंच गये।"


आशुतोष ने नजर उठाकर देखा तो उसे कहीं भी मंदिर नहीं दिखा। आश्चर्य से बोला- "कहां? मुझे तो कोई मंदिर नहीं दिख रहा!"


"ये मायालोक है वत्स! यहां ईश्वर की पूजा पाषाणों के कक्ष में नहीं वरन् प्रकृति के सानिध्य में की जाती है।" बाबा ने मुस्कुराकर कहा और एक दिशा में इशारा किया- "वो वटवृक्ष देख रहे हो! उससे कुछ ही दूरी पर देवस्थान है।"


बरगद का पेड़ देखकर आशुतोष के चेहरे पर खुशी दौड़ आई। पूरे जंगल में बस यही एक पेड़ था जिसे वह पहचान पाया था। वह लपककर उस बरगद के पेड़ के पास जा पहुंचा। वहां पहुंच कर वो हैरान रह गया। बरगद के तने में एक खोह बनी थी, जिसका आकार इतना था कि एक आदमी आसानी से उसके अंदर जा सकता था।


"आओ.... यही देवस्थान का प्रवेश- द्वार है।" बाबा मुस्कुराते हुये उस खोह के द्वार में समा गये।


आशुतोष भी झिझकते हुये बाबा के पीछे- पीछे उस खोह में बढ़ चला खोह में जाते ही उसे एक झटका सा लगा। वो एक गुफानुमा मंदिर में था। उसने चौंककर चारों तरफ नजर दौड़ाई तो पाया कि वो चारों तरफ से बंद एक कमरा था, जिसमें सामने की तरफ महाकाली की एक प्रतिमा है, जिसमें वो महादेव के वक्ष पर पांव रखे हुये हैं। गर्भगृह में अनेकों स्तंभ थे, जिनपर माता के नाना रूपों का चित्रण था। महाकाली की प्रतिमा के आगे एक यज्ञ- वेदी थी, जिसमें अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। महाकाली की प्रतिमा के अगल- बगल दो बलि- पीठ थे, जिनमें से एक बलि- यूथ पर गाय बंधी थी, जबकि दूसरी तरफ हाथ- मुंह बंधे मिशा।


"ये क्या है? मिशा...." आशुतोष मिशा की तरफ दौड़ा लेकिन बाबा ने उसे रोक लिया।


"ये दोनों देवी के भोग हेतु यहां हैं।" बाबा ने कहा- "मैंनें तुमसे पहले भी कहा था कि इस परीक्षण में तुम ही नहीं तुमसे जुड़े लोग भी प्रभावित होंगें। अब तुम्हें महाकाली को बलि चढ़ानी ही होगी अन्यथा समय के अंत तक इसी काल- भंवर में फंसे रहोगे।"


"हरामजादे तेरी बलि न चढ़ा दूं मैं...." आशुतोष ने गुस्से में हाथ में थामी तलवार को म्यान से निकाला और बाबा पर चला दिया लेकिन बाबा अचानक गायब हो गये।


"यही तो तुम्हारे मोह का परीक्षण है। जाओ और हवन- कुंड में आहुतियां ड़ालकर देवी का आवाह्न करो। जैसे ही देवी जागृत होंगी, उन्हें बलि चढ़ा देना।"


"मुझे नहीं चढ़ानी कोई बलि और न ही मुझे मोक्ष चाहिये। तुम मुझे वापस छोड़ आओ।" आशुतोष गुस्से में चीखा।


"तुम इस चरण से बिना बलि चढ़ाये लौट नहीं सकते। तुम्हारे पास एक प्रहर का समय है, यदि तब तक बलि नहीं दी तो आजीवन इसी काल- भंवर में फंसे रह जाओगे।"


"लेकिन देवी को जगाऊं कैसे?" आशुतोष ने पूछा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।


"हरामखोर.... कोई तंत्र- मंत्र ही बता देता.... मुझे तो कोई मंत्र भी याद नहीं है।"आशुतोष उदास भाव से बोला और यज्ञ- कुंड की तरफ बढ़ गया।


* * *



यज्ञासन पर बैठते ही आशुतोष की नजर यज्ञ- कुंड के बगल में रखी थाली पर पड़ी, जिसमें भस्म रखी हुई थी। उसने एक गहरी सांस ली और नवार्ण मंत्र (ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्चैः) का जाप करते हुये अग्नि में भस्माहुति देने लगा। अंतिम आहुति पड़ते ही यज्ञाग्नि भरभराकर भड़क उठी और उसके कानों में एक हुंकार का स्वर गूंजा।


उसके सामने की तरफ नजरें उठाईं तो पाया साक्षात माता अपने महाकाली स्वरूप में अपनी प्रतिमा के स्थान पर थीं। उनका अत्यंत विकराल रूप देखकर आशुतोष का कलेजा मुंह को आने लगा लेकिन किसी तरह खुद को संभालते हुये जमीन पर लेटकर दंडवत प्रणाम किया।


"मां.... आप मेरे बुलाने पर आईं...."


"हां, बोल किसलिये बुलाया है।" माता ने गुर्राकर पूछा।


"एक बाबा ने मुझे यहां कैद कर दिया है। मुझे यहां से मुक्त कर दो।"


"तो ला.... मेरी बलि दे और मैं तेरा अभीष्ट कार्य सिद्ध करूंगी।"


"लेकिन मां, जब सारे जीवों का जन्म आपसे ही हुआ है तो आप उनका भक्षण कैसे कर सकतीं हैं?" हिम्मत करके आशुतोष ने पूछा।


"जब सारे जीवों की उत्पत्ति मुझसे हुई है तो मेरी उदरपूर्ति से उनकी क्या हानि है?" माता क्रोध में बोलीं- "तू मेरा समय व्यर्थ न कर और बलि का भोग लगा।"


"लेकिन मां किसकी बलि दूं? सामने एक तरफ गाय है, जिसका मैंनें दूध पिया है और दूसरी तरफ मेरी बहन है, जिसने मुझे राखियां बांधी हैं। गाय मेरे लिये मां के समान है और बहन को उसकी रक्षा का वचन दिया है।" आशुतोष गिड़गिड़ाया।


"तो अगर तुझे बलि नहीं देनी थी तो मुझे बुलाया ही क्यों?" क्रोधातिरेक माता चिल्लाई तो आशुतोष को लगा मानों उसके कानों के पर्दे फट गये हों। माता क्रोधवश कह रहीं थी- "मुझे बुलाकर मेरा अपमान! ठीक है, अगर तू बलि नहीं देता तो मत दे। मैं खुद ही तेरे सभी संगी- साथी, नातेदारों और परिजनों को लील लेती हूं।"


"रूको.... मां रूको.... मैं बलि दूंगा।" आशुतोष आंसू पोंछते हुए बोला। उसने एक नजर महाकाली के भयंकर रूप को देख रम्भाती गाय पर ड़ाली और फिर एक नजर मिशा पर ड़ाली, जिसकी आंखों से बदस्तूर आंसू जारी थे।


"तुमको बलि चाहिये न! ठीक है लेकिन मेरे प्रेम को मेरा मोह मत समझना...." आशुतोष क्रोधित होकर बोला- "मिशा मेरी बहन है और मैं उससे प्रेम करता हूं, लेकिन वो मेरा मोह नहीं है। आपको बलि चाहिये न! तो ठीक है मैं अपनी बलि दूंगा। लेकिन एक बात सुन लो.... मैं तो तुम्हें मां कहता था लेकिन आज मन में तुम्हारे लिये कोई इज्जत नहीं है। मां जन्म तो दे सकती है लेकिन अपने बच्चों की बलि नहीं ले सकती। जो ऐसा करती है वो मां नहीं सर्पिणी है.... पिशाचिनी है। आज समझ आया कि तुम्हारी देह का काला रंग असल में तुम्हारे मन की कालिमा है।" कहते हुये आशुतोष ने अपनी गर्दन पर तलवार चला दी।



* * *



महल के दालान के बीचों- बीच एक चबूतरे पर बेशकीमती कालीन बिछी थी, जिसपर अनिका सिर झुकाये अपने ख्यालों में खोई थी। उसको अब भी यकीन नहीं आ रहा था कि उसके छूने भर से अघोरा लड़खड़ा गया। उसे भी अब आशुतोष की बात पर यकीन आने लगा था कि उसके पास कोई शक्ति है, जिसे उसे जगाना होगा।


"आखिर ये हो क्या रहा है यार! ओह गॉड...." अनिका बुदबुदाई।


अभी वो इसी उहापोह में थी कि दो अजीब सी काली आकृतियां उसके सामने आई और जल्द ही उन्होनें दो औरतों की आकृति बना ली।


"आपके स्नान की व्यवस्था हो चुकी है राजकुमारी! आप स्नानागार की ओर प्रस्थान करें।" एक आकृति ने शील- स्वभाव से कहा।


अनिका ने एक नजर उसे देखकर घिन भरे अंदाज में कहा- "वो सारा पानी यहीं इसी दालान में ले आ और मेरे नहाने के लिये मुझे गरम पानी चाहिये। उसका अरैंजमेंट करो।"


"लेकिन राजकुमारी यहां...."


"जितना बोला है उतना कर.... वरना तेरी वो हालत करूंगी, जिसे देखकर अघोरा की रूह भी कांप जाएगी।" अनिका गुस्से में बोली।


"जी राजकुमारी!" दोनों आकृतियों ने रक्तिम नेत्रों से अनिका को घूरते हुये कहा और धुंआ बनकर उड़ चले और कुछ ही देर में पांच- छः बाल्टी पानी लेकर उसके सामने हाजिर हुये।


"मेरे नहाने के लिये गरम पानी...."


"स्नानागार में सब व्यवस्था हो चुकी है राजकुमारी.... आप स्नानागार की ओर प्रस्थान करें।" एक आकृति ने उसकी बात काटते हुये कहा।


"चलो.... ये पानी यहीं पर रहने देना।" कहते हुये अनिका असमंजस में उनके साथ रवाना हुई।


* * *



उधर बलि - पीठ पर आशुतोष विलाप कर रहा था- "आज पता चला कि तुम्हारी देह का ये काला रंग असल में तुम्हारे मन की कालिमा है...." कहते हुये आशुतोष ने आंखे मूंदकर अपनी गर्दन पर तलवार चला दी लेकिन आश्चर्य.... उसे किसी भी पीड़ा का अनुभव नहीं हुआ।


उसने हैरान होकर आंखे खोली तो पूरा वातावरण ही बदल चुका था। वो अब मंदिर में न होकर एक महल के विशाल लौह- द्वार पर था। पूरा वातावरण अंधकार में डूबा हुआ था और श्वेत वस्त्रधारी एक महिला मुस्कुराते हुये उसे देख रही थी। उसने एक नजर आसमान की तरफ देखा तो उसे आसमान में अनेकों आकाशीय पिंड नजर आये। उसे समझते देर नहीं लगी कि वो एक बार फिर उसी जगह है, जहां से इस सपने की शुरूआत हुई थी।


"आप कौन हैं और मैं यहां कैसे आया?" आशुतोष ने अपने सामने खड़ी स्त्री से प्रश्न किया- "मैं तो मंदिर में.... मैं अपनी बलि दे रहा था.... अचानक...."


"शांत पुत्र.... वो मात्र एक परीक्षा थी।" देवी मुस्कुराईं- "जिसमें तुम्हारे मोह, भय और साहस का परीक्षण होना था और उस परीक्षा में तुम उत्कृष्ट प्रदर्शन के साथ उत्तीर्ण हुये।"


"तो अब मैं नीलांजन से मिल सकता हूं?" आशुतोष व्याकुलता से बोला- "और आपका परिचय...."


"संसार में मेरा कोई एक नाम तो है नहीं पुत्र! हर क्षेत्र में मेरे अनेकों नाम प्रचलन में हैं।" देवी विहंसकर बोली- "परन्तु हमारा नाम हमारे पिता हिमनरेश हिमावन ने पार्वती रखा था।"


"माता पार्वती...." आशुतोष को यकीन नहीं हो रहा थ कि उसके सामने साक्षात मां आदिशक्ति खड़ीं हैं। आंखों में आंसू भरकर दंडवत हो बोला- "माफ करना मां, आपको पहचान नहीं पाया। एक्चुअली हमारे इधर फोटो में आपको हमेशा शेर पर बैठे देखा है तो.... और वो मंदिर में भी महाकाली को ताना मारा उसके लिये भी सॉरी।" 


"तुम्हारा कथन पूर्णतया उचित था पुत्र...." माता पार्वती स्नेहपूर्वक बोली- "कोई भी माता अपनी संतति का भक्षण नहीं करती। हमको तो संसार जगतजननी की संज्ञा देता है, तो भला हम कैसे अपनी ही संतति के प्राणों की आहुति लेंगें?"


"तो फिर वो बाबा...."


"वो हमारे पुत्र कुमार थे, जो तुम्हारी परीक्षा में मात्र एक पात्र की भूमिका का निर्वाह कर रहे थे।" माता ममतामयी मुस्कान के साथ बोलीं- "और तुम्हारा कथन भी उचित है, कि मात्र दुष्टात्माओं का भोग ही हमारे उग्र स्वरूप को चढ़ाना चाहिये। क्योंकि हम भी मात्र दुष्टों के विनाश हेतु ही उग्र रूप धारण करते हैं।"


"आपके पुत्र कुमार! हमने तो सिर्फ कार्तिकेय और गणेश के बारे में सुना है।" आशुतोष को हैरानी हुई।


"हमारे पुत्र कार्तिकेय का ही एक अन्य नाम कुमार भी है।" देवी हंसते हुये बोलीं।


"तो वो आदमी जिसने हमें नीलांजन से मिलने का रास्ता बताया...."


"वो भी कार्तिकेय ही थे।" बात माता ने पूरी की।


"लेकिन ये टेस्ट्स लेने की जरूरत क्या पड़ गई?" आशुतोष ने हैरान होकर कहा।


"पुत्र.... वैसे तो मानव शरीर में सोलह विकार होते हैं, लेकिन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहं और भय ये षट्विकार महाविकार हैं। जो व्यक्ति इन छः अशुद्धियों से मुक्त रहता है, उसे भगवत्कृपा प्राप्त होती है। तुम्हारे इन्हीं विकारों का परीक्षण करना इन परीक्षाओं का उद्देश्य था।"


"मतलब?"


"अर्थात् ये पुत्र कि अघोरा एक महान शिव- भक्त होने के साथ- साथ तंत्र- शास्त्र का प्रकांड विद्वान और मायाधिपति भी है। और उससे युद्ध हेतु तुम्हें विशेष ज्ञान की आवश्यकता पड़ेगी।" माता विस्तारपूर्वक समझाते हुये बोलीं- "उस ज्ञान की प्राप्ति के लिये तुम्हें तुम्हारी पूर्व- जन्म की शक्तियों का स्मरण होना आवश्यक था, परन्तु साथ ही हमें ये भी सुनिश्चित करना था कि तुम इन शक्तियों का दुरूपयोग न करो।"


"तो क्या रिजल्ट निकला?"


"वो तो तुम्हारे परीक्षक ही निर्धारित करेंगें। हमारा कार्य तो मात्र तुम्हारी परीक्षा लेना था। परन्तु तुम चारों परीक्षाओं में सफल रहे। अब समय आ गया है कि तुम इस द्वार में प्रवेश कर नीलांजन की वास्तविकता से परिचित हो जाओ।" माता रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोलीं और शून्य में अन्तर्ध्यान हो गईं।


* * *



माता के अन्तर्ध्यान होते ही लौहे का दरवाजा अपने आप खुल गया। आशुतोष अपने ही विचारों में गुम उस दरवाजे से होते हुये एक महल के प्रांगण में पहुंचा। वो एक भव्य महल था, जिसका निर्माण काले ग्रेनाइट से हुआ था। पूरा महल दियों की रोशनी से प्रकाशित था, लेकिन कहीं भी कोई दृष्टिगोचर नहीं था।


मुख्य- द्वार से होते हुये आशुतोष ने एक बड़े से कमरे में कदम रखा, जो काफी हद तक पुराने जमाने के राज- दरबारों से मिलता- जुलता था। द्वार के ठीक सामने ही कुछ ही दूरी पर काफी ऊंचाई पर एक लौहे का सिंहासन था, जिस तक जाने के लिये जमीन से करीब सात सीढियां बनी हुईं थीं। हालांकि सिंहासन लौहे का बना था, लेकिन उस पर कई सारे नीलम के पत्थर जड़े हुये थे, जिनसे प्रकाश उत्सर्जित हो रहा था।


आशुतोष ने ध्यान दिया कि इस पूरे कमरे में एक भी दिया नहीं जल रहा था, लेकिन लौह- सिंहासन पर जड़े नीले रत्नों से उत्सर्जित प्रकाश से कमरे में हल्की नीली रोशनी फैली हुई थी। सिंहासन पर एक विराट- पुरूष बैठा था, जिसकी केवल रक्तिम आंखें और स्वर्ण किरीट ही आशुतोष को दिख रहे थे।


"अंततः तुम यहां तक पहुंच ही गये।" वो विराट पुरूष सिंहासन से उतरकर आशुतोष की तरफ बढ़ा तो उसे उसकी शक्ल नजर आई। वो नीलांजन था।


"नीलांजन...." आशुतोष हर्ष मिश्रित आश्चर्य से बोला। वो नीलांजन के इस रूप को देखकर चौंक सा गया था। उसके सिर पर स्वर्ण- मुकुट था, जिसपर बहुमूल्य नीलम- पत्थर जड़े थे। वो केवल काली धोती पहने था और बदन के ऊपरी भाग पर पुराने राजसी लोगों की तरह मात्र एक नीला अंगवस्त्र दायें हाथ में लपेटे था।


"हां, शनिलोक में तुम्हारा स्वागत है।" नीलांजन ने मुस्कुराकर कहा।


"शनिलोक!इसीलिये मैं सोचूं कि आसमान में इतने चांद और पिंड़ क्यों दिख रहें हैं।" आशुतोष चिहुंक उठा- "मतलब तुम एलियन हो और मैं शनि- ग्रह पर हूं। "


"हां...." नीलांजन ने ठहाका लगाया- "तुम्हें जो समझना है समझो।"


"लेकिन सुबह ही तो मैं तुमसे राज- राजेश्वरी मंदिर में मिला था और तुमने कहा था कि तुम जज हो और...."


"हां, परन्तु मैंनें असत्य तो नहीं कहा था। तुम्हारी धरती के लोगों को उनके कर्मों का फल देना और दुष्टों को उनकी दुष्टता का दण्ड़ देना ही तो मेरा कार्य है।" नीलांजन मुस्कुराते हुये बोले।


"मतलब?" आशुतोष को कुछ समझ नहीं आ रहा था।


"अर्थात् ये कि धरतीवासियों के लिये मैं कर्मफलदाता और दण्डाधिकारी हूं।"


"व्हट? मतलब तुम.... शनिदेव हो.... वही सूर्य भगवान के बेटे.... साढ़ेसाती वाले?" आशुतोष थूक गटकते हुये अटक- अटककर बोला।


"हां।" उत्तर अत्यंत संक्षिप्त था।


"मैंनें सुना था कि तुम जिसको भी देखते हो उसपर साढ़ेसाती चढ़ जाती है और वो बहुत कष्ट...."


"साढ़ेसाती कुंडली के अनुसार फल देती है और तुमने वो कहावत तो सुनी होगी कि बबूल के वृक्ष से आम्रफल की प्राप्ति नहीं होती। साढ़ेसाती भी मनुष्य के कर्मों के अनुसार प्रभाव देती है। सज्जनों के लिये तो ये लाभकारी ही है परन्तु ये समय साढ़ेसाती पर चर्चा करने का नहीं है।" शनिदेव आशुतोष की बात काटकर बोले- "हमने तुम्हें यहां तुम्हारे पूर्व- जन्म की शक्तियों को जागृत करने के लिये बुलाया है।"


"तो मैं क्या पिछले जन्म में बहुत बड़ी तोप था?" आशुतोष ने उत्सुक्तावश पूछा।


"वो तो कुछ ही समय में जान जाओगे।" शनिदेव मुस्कुराये और अपना दाहिने अंगूठे से आशुतोष के दोनों भंवों के बीच छुआ। आशुतोष को एक पल के लिये तो लगा कि उसके सिर को गर्म सरिये से दाग दिया गया है। उसे तेज जलन हो रही थी। उसने अपना सिर पीछे हटाने की कोशिश की लेकिन उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि मानों उसका सिर नीलांजन के अंगूठे से वैसे ही चिपक गया है, जैसे लौहे के टुकडे चुंबक से चिपक जाते हैं।


करीब दस सेकेंड तक उसकी यही स्थिति रही और अचानक उसका पूरा दर्द गायब हो गया। उसे लग रहा था मानों वो शून्य में विचरण कर रहा है। अनेंकों अंतरिक्षों, आकाशगंगाओं से होता हुआ वो फिर से शनि- ग्रह की ओर बढ़ा और अचानक फिर तेजी से धरती की तरफ गिरने लगा। उसे महसूस हो रहा था कि वो आकाश की ऊंचाई से लगातार गिर रहा है और उसने झटपटाते हुये अपनी आंखें खोल दी।


* * * 



अनिका बाथरूम से नहा- धोकर निकली और फिर से उसी दालान में जाकर ठहर गई। उसने चबूतरे के पास पानी की पांचों बाल्टियां देखी और मुस्कुराने लगी। उसने एक बाल्टी उठाई और शिव- मंदिर की ओर बढ़ गई। एक- एक कर वो पांचों बाल्टियां मंदिर में ले गई। उसके दिमाग में बस आशुतोष की बात गूंज रही थी कि उसके पास शिवोऽहं की शक्ति है और उसे वह शक्ति जागृत करनी है।


उसने सबसे पहले मंदिर में झाड़ू लगाया और सारे मकड़ी के जाले साफ किये। फिस उस पानी से शिवलिंग और पूरा कमरा साफ किया। पोछा लगाने के लिये कुछ न मिलने पर अपनी चुनरी को ही फाड़कर पोछे का काम लिया। आखिरकार सूरज ढ़लते- ढ़लते कमरा साफ हुआ और वो मुस्कुराते हुये अपने कमरे की तरफ लौट गई। पूरे दिन की मेहनत से वो बुरी तरह थक गई थी इसलिये बिस्तर पर लेटते ही नींद की आगोश में समा गई।


अगले दिन नहा- धोकर वो सूर्योदय के साथ ही एक तांबें के लौटे में पानी लेकर मंदिर- कक्ष में पहुंची और रूद्राष्टकम् का जाप करते हुये शिवलिंग को जल अर्पित करने लगी। रूद्राष्टक का जाप पूर्ण होते ही वो शिवलिंग के सम्मुख हाथ जोड़कर बैठ गई और शिव के पंचाक्षरी मंत्र 'ऊँ नमः शिवाय' का जाप करने लगी।


उधर आशुतोष ने जैसे ही अपनी आंखें खोली तो खुद को एक बिस्तर पर लेटे पाया, लेकिन ये उसका कमरा नहीं था। उसने ताज्जुब से अपने चारों तरफ नजरें दौड़ाई तो पाया कि वो किसी अस्पताल का कमरा था और उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा गया था।


"व्हट द हैल इज गोइंग ऑन?" वो बड़बड़ाया और तुरंत अपने शरीर पर चिपके ग्लूकोज की निब और दूसरे तारों को हटाने लगा।


"अरे! अरे! ये क्या कर रहें हैं आप?" एक नर्स उसे रोकते हुये बोली, जो शायद उसकी ग्लूकोज की बोतल में कोई दवा मिलाने आई थी।


"ये आप मुझसे पूछ रहीं हैं?" आशुतोष गुस्से से बोला- "पहले मुझे ये बताइये कि मुझे हॉस्पिटल में एड़मिट किसने करवाया और वो भी लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर ड़ाला है आपने मुझे? सीरियसली!"


"देखिये शांत हो जाइये.... जब आपको यहां लाया गया था तो आप ऑलरेड़ी कोमा में थे इसलिये...."


"मैं कोमा में नहीं था सो रहा था बेवकूफ औरत...." आशुतोष चिढ़कर बोला- "और साला कौन सा डॉक्टर है आपका ऐसा, जिसे नींद में और कोमा में अंतर नहीं पता?"


"देखिये आप शांत हो जाइये.... मैं अभी डॉक्टर को बुलाकर लाती हूं, आप उन्हीं से बात कर लीजिये।" नर्स ने उससे आग्रह किया और तेजी से कमरे से निकल गई। पीछे आशुतोष हैरत में पड़ गया कि आखिर वो कितनी देर से सो रहा था, जो डॉक्टर ने उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर ड़ाल दिया। उससे भी ज्यादा ताज्जुब उसे अपने गुस्से पर हो रहा था।


"हैलो मिस्टर...." डॉक्टर ने नर्स के साथ कमरे में प्रवेश किया तो आशुतोष अपने ख्यालों से बाहर आया।


"आशुतोष" उसने डॉक्टर से हाथ मिलाते हुये कहा। वो कोई तीस- बत्तीस साल का जवान आदमी था।


"माई सेल्फ डॉक्टर अविनाश त्यागी।" डॉक्टर मुस्कुराया- "तो नर्स बता रही थी कि आपका कहना है कि आप सो रहे थे।"


"हां.... मैं काफी थक चुका था तो होटेल पहुंचते ही सो गया था।" आशुतोष उसे घूरते हुये बोला।


"ओह.... तो फिर तो आपको कुंभकरण का टैग मिलना चाहिये...." डॉक्टर हंसकर बोला- "आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि आपको यहां परसों शाम को एड़मिट करवाया गया था।"डॉक्टर ने बताया तो आशुतोष ने अविश्वास भरी नजरों से उसे देखा।


"परसों जब आप होटेल से नहीं निकले तो होटेल स्टाफ का एक आदमी आपसे दो- तीन बार खाने के बारे में पूछने आया था। तीसरी बार भी आपकी तरफ से काफी देर तक जवाब नहीं आया तो उसने मास्टर की से आपका कमरा खोला और पाया कि आप औंधे मुंह बिस्तर पर गिरे पड़े थे। जब काफी मशक्कत के बाद भी आप नहीं उठे तो उसने मैनेजर से बात की और वो आपको यहां एड़मिट करा गये थे।" डॉक्टर ने बम फोड़ा। आशुतोष को तो पहले यकीन ही नहीं हुआ कि उसको सोते- सोते अड़तालीस घंटे से ऊपर हो चुके हैं, लेकिन जब दीवार पर टंगी डिजिटल घड़ी में डेट और टाइम देखा तो उसे भरोसा करना ही पड़ा।


"लेकिन मैं कोमा में कैसे?" आशुतोष ने चकरा कर पूछा।


"या इट्स रियली कॉम्पलीकेटेड़़.... आई मीन बिना कोई चोट या घाव लगे लेकिन अब भी कई ऐसे सवाल है जिनका जवाब मेड़िकल साइंस के पास भी नहीं है।" डॉक्टर समझाते हुये बोला।


"तो मेरा बिल...." आशुतोष कह ही रहा था कि डॉक्टर बात काटकर बीच में बोल पड़ा- "डाँट वरी फॉर दैट.... हमने आपके पिता को फोन किया था और उन्होनें बिल भर दिया है। वो अभी नीचे कैंटीन में होंगें.... मैं भेजता हूं।" कहकर डॉक्टर कमरे से बाहर हुआ।


* * *




अनिका ने एक बार शिव पंचाक्षरी मंत्र का जाप क्या शुरू किया, उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा। उसकी तंद्रा सीधे शाम को टूटी तो उसके मन में एक अलग ही खुशी की फीलिंग थी। जैसे ही उसने जाप खत्म किया और शिवलिंग को प्रणाम कर वापस जाने के लिये मुड़ी तो पाया कि दरवाजे पर एक अघोरा अपने कई पिठलग्गुओं के साथ खड़ा उसे लाल आंखों से घूर रहा था।


"तुम्हें क्या लगता है कि अपने दो दिन के पूजा- पाठ से महादेव को प्रसन्न कर हमारे अंत का मार्ग प्रशस्त कर लोगी?" अघोरा दांत पीसते हुये बोला- "हम हजार वर्षों से भी अधिक समय से भोलेनाथ की आराधना करते आये हैं।"


"भक्ति में तो कॉम्पीटिशन होता ही नहीं है अघोरा।' अनिका मुस्कुराई- "एक बार इसी घमंड में रावण ने भी नंदी का मजाक उड़ाया था.... वो कहानी याद है या भूल गये? और रही कृपा की बात तो वो भगवान की मर्जी है। चाहे तो तुमसे हजार सालों की भक्ति के बाद भी नाराज हो जायें या चाहे तो मेरी दो दिन की ही भक्ति से खुश हो जायें।"


"तो तुम्हे लगता है कि तुम तंत्र- शास्त्र के प्रकांड विद्वान और माया- ज्ञान के महाज्ञानी अघोरा को हरा सकती हो?" अघोरा ने तंज कसा।


"आराम से...." अनिका चुटकी बजाते हुये बोली- "लेकिन तुम्हारा नर्कवास तो आशुतोष के हाथों लिखा है।"


"नरक तो तू भोगेगी अनिका!" अघोरा ने अट्टाहास किया- "मात्र सत्रह दिवस शेष हैं। एक बार ये विवाह हो गया तो फिर तुम्हें ज्ञात होगा कि नरक यातना क्या होती है?"


"तुम्हारी बातें भी एकदम रावण जैसी हैं लेकिन तुम रावण का अंत भूल रहे हो।" अनिका ने ठहाका लगाया।


"हां, शायद मैं इस युग का रावण ही हूं, लेकिन क्या तुम्हें लगता है कि आशुतोष राम है?" अघोरा हंसा।


"पता नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि वो तेरा अंत है।"


"तो उचित है! आज हम अपने काल का ही अंत कर देंगें।" अघोरा कुटिलता से मुस्कुराया और अपने परिचरों की तरफ देखकर बोला- "जाओ और आशुतोष को मारकर इस मूर्ख की सभी आशाओं और अपेक्षाओं का अंत कर दो।"


"जो आज्ञा महामहिम!" कहते हुये चार साये वहां से धुंआ बनकर लुप्त हो गये और अघोरा के अट्टाहास की ध्वनि पूरे महल में गूंजने लगी।


* * *



क्रमशः-


----- अव्यक्त

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2 Comments

Niraj Pandey

09-Oct-2021 12:36 AM

बहुत ही बेहतरीन👌👌👌

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Shalini Sharma

02-Oct-2021 09:34 AM

Nice

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